अब जिस सपने से बड़ी हैरान जागी हूं, इमरोज़ की बांह पकड़ कर कितनी ही देर तक उसकी ओर देखती रह गई कि यह सपना उसे कैसे सुनाऊं ! कुछ भी लफ्जों की पकड़ में नहीं आ रहा था...हौले-हौले आधे-अधूरे लफ्जों में सुनाने की कोशिश की...
"किसी दीवार में एक बहुत बड़ा शीशा लगा हुआ है...अचानक मेरा ध्यान शीशे की ओर जाता है और देखती हूँ कि सिर से पैर तक मेरी सूरत किसी मंदिर में पड़ी हुई पार्वती की सूरत जैसी हो गई है...बदन पर सफेद धोती है जिस का पल्ला सिर तक लिपटा है सिर पर लम्बे बालों का एक जूड़ा है...नक्श इसी तरह तराशे हुए...पर मेरी सूरत, आज से कुछ बरस पहले जैसी है...चेहरे पर गंभीरता आज जैसी है, पर नक्शों की जवानी आज से कुछ बरस पहले जैसी...
"पत्थर की एक गढ़ी हुई मूर्ति की तरह अपने आपको देखती हूं...और खुद ही कहती हूं-आज मैंने यह कैसा भेस बनाया हुआ है ? बिल्कुल शिव की गौरी जैसा..." सपने की हैरानी और खुमारी बताई नहीं जाती....
ये अमृता जी का सपना था जो मैंने अब उनको जानने के बाद पढ़ा और जाना .......मगर इस सपने को मैं पहले ही अपने रूप में, अपनी नींदों से जी चुकी हूँ और उस वक़्त में अचरज से भर गयी जब मैंने अमृता जी के इस सपने को पढ़ा।फर्क सिर्फ इतना रहा की अमृता जी अपने इमरोज़ की बाँहों में थी और मैं खाली हाथ भरी आँखों से खुद से सवाल कर रही थी।
ये सब क्या है मैं नहीं जानती .......क्यूँ है ये जानना नहीं चाहती .....बस ये सब मेरा है .....मेरे लिए अमृता जी का आशीर्वाद है .....यकीन है मुझे।