मेरी अमृता....

मेरी अमृता....

Saturday, May 17, 2014


२९ मई १९८३
अब जिस सपने से बड़ी हैरान जागी हूं, इमरोज़ की बांह पकड़ कर कितनी ही देर तक उसकी ओर देखती रह गई कि यह सपना उसे कैसे सुनाऊं ! कुछ भी लफ्जों की पकड़ में नहीं आ रहा था...हौले-हौले आधे-अधूरे लफ्जों में सुनाने की कोशिश की...

"किसी दीवार में एक बहुत बड़ा शीशा लगा हुआ है...अचानक मेरा ध्यान शीशे की ओर जाता है और देखती हूँ कि सिर से पैर तक मेरी सूरत किसी मंदिर में पड़ी हुई पार्वती की सूरत जैसी हो गई है...बदन पर सफेद धोती है जिस का पल्ला सिर तक लिपटा है सिर पर लम्बे बालों का एक जूड़ा है...नक्श इसी तरह तराशे हुए...पर मेरी सूरत, आज से कुछ बरस पहले जैसी है...चेहरे पर गंभीरता आज जैसी है, पर नक्शों की जवानी आज से कुछ बरस पहले जैसी...

"पत्थर की एक गढ़ी हुई मूर्ति की तरह अपने आपको देखती हूं...और खुद ही कहती हूं-आज मैंने यह कैसा भेस बनाया हुआ है ? बिल्कुल शिव की गौरी जैसा..." सपने की हैरानी और खुमारी बताई नहीं जाती....

                     

ये अमृता जी का सपना था जो मैंने अब उनको जानने के बाद पढ़ा और जाना .......मगर इस सपने को मैं पहले ही अपने रूप में, अपनी नींदों से जी चुकी हूँ और उस वक़्त में अचरज से भर गयी जब मैंने अमृता जी के इस सपने को पढ़ा।फर्क सिर्फ इतना रहा की अमृता जी अपने इमरोज़ की बाँहों में थी और मैं खाली हाथ भरी आँखों से खुद से सवाल कर रही थी।

ये सब क्या है मैं नहीं जानती .......क्यूँ है ये जानना नहीं चाहती .....बस ये सब मेरा है .....मेरे लिए अमृता जी का आशीर्वाद है .....यकीन है मुझे।
मैं अक्सर ख़ुद को उन एहसासों से जोड़ने की कोशिश करती हूँ जो अमृता जी ने अपने अकेलेपन और तन्हा पलों में बितायें होंगे। किस क़दर सोचते हुए उन्होंने वो दिन जीये, क्या सहते हुए, उस घुटन और बैचैनी को मैं महसूस करने की कोशिश करती हूँ पर मेरे प्रयास व्यर्थ है। वो अद्धभुत शख़्सियत थी उनकी जैसी रूहें कई जन्मों के बाद इन्सानी रूप लेती है। मैं शायद उनके क़दमों की धूल भी न बन सकूँ पर ये जरूर चाहती हूँ की उनके नाम की गूँज मेरे कानों में सदा पड़ती रहे। 

 उन्होंने जो खोया, जिस तरहा से खोया उसका दर्द मैं समझती हूँ। कई बार ऐसा लगता है जैसे उनकी ज़िन्दगी के पन्ने जो ख़ाली रह गये होंगे उस पर ही मेरी ज़िन्दगी को उतार दिया गया है। उनके ज़ख़्म, उनका दर्द , उनका वो एकाकीपन और उसमे उलझी उनकी ज़िन्दगी की डोर जैसे अब मेरे हिस्से में आ गए है और ये सभी मुझे अज़ीज़ है, मेरे लिए अनमोल है।

मैं जानती हूँ अपने प्यार से अलगाव और फिर उसके गम से लगाव जीवन को जीने का बहाना दे देते है। अपने प्यार का न हो पाने की चुभन, उसकी टीस ताउम्र साथ चलती है जो न कभी मरने देती है और न ही जीने देती है। अमृता जी ने ख़ुशी से ऐसे जीवन को जीया और अमरप्रेम की अनोखी मिसाल क़ायम की । उनके शब्दों में उनके जीवन की ख़ूबसूरती, तसल्ली और सन्तोष की छवि साफ़ झलकती है।

मैं अमृता जी जितनी मज़बूत और सहनशील नहीं शायद फिर भी अपने गम को सहर्ष गले से लगाये इसी के साथ जी रही हूँ और जीती रहूँगी। अमृता जी को पढ़ कर हर बार मेरे टूटते कदम खुद-बा-खुद सम्भल जाते है। अमृता जी मेरी आराध्य, मेरी गुरु, मेरी प्रेरणा है और उनका मेरे सपनो में आना, मुझ से मिलना ये इस बात का प्रमाण है की वो मुझे सुनती है, देखती है और मुझे अपना आशीर्वाद दे रही है।
हमारे बीच का ये अनसुना सा रिश्ता अनोखा है, अद्धभुत है जिसको व्यक्त करना मेरे लिए शब्दों में नामुमकिन है।