मेरी अमृता....

मेरी अमृता....

Sunday, August 31, 2014

जन्मदिन मुबारक ....''मेरी अमृता''

कुछ लोग
खुशबू से होते है
हवाओं में रहते है ....पानी से बहते है ....

प्रेम बुनते है
ज़िन्दगी कहते है...

लम्हों कि स्याही से
ग़मों में रंग भरते हैं

ख़ामोशी लिखते है
इतिहास बनते है

दुनिया
इन्हें कुछ भी कहे
हम इन्हें ''अमृता'' कहते है ....

जन्मदिन मुबारक ....''मेरी अमृता''



जन्मदिन मुबारक ...

आपको लिखना बहुत कठिन है या यूँ कहूँ की मुमकिन ही नहीं ....... या फिर में प्रेम लिख दूँ तो उसका अर्थ आप हो ....या आप ही प्रेम हो ....

आपसे न मिल पाने का मुझे बहुत गम है और ये भी की आपको बहुत देर से जान पायी काश मेरी नींद आपके रहते टूटती तो ....मैं आपसे सपनों में ही नहीं हकीकत में मिल पाती ....अफ़सोस है जो सदा रहेगा 

आपको जानने के बाद ही मैं खुद को जान पायी जैसे आपको को खोज कर मैंने खुद को पा लिया हो .....मैं अपने लिखने की वजह आपको ही मानती हूँ ....

क्या लिखूं आपके लिए ....शब्द नहीं मेरे पास ....

ख़ामोशी 
लिखतीं रही आप 
न जाने कैसे ...मैंने 
ज़िन्दगी को उसमें पढ़ लिया 

प्रेम 
बताती रही आप 
न जाने कैसें....दिल ने  
उसे जीवन समझ लिया 
  
हाँ यही हुआ है ...आपने प्रेम को न सिर्फ जीया बल्कि उसके नये आयाम दिए ....दुनिया ने बहुत कुछ कहा पर आप का विश्वास और प्रेम कभी डगमगाया नहीं....आपके सरल, सहज और स्नेह भरे व्यवहार के सभी कायल रहे है और उसी को याद कर आपको नमन करते है.... 

लिखने वाले आपको कई नामों से लिखा करते है.....पर मेरे लिए आप ''मेरी अमृता'' हो .....और मुझे आप अमृता-इमरोज़ हो कर ही पूरी लगती हो ....

इमरोज़ जी को जब मैंने ख़त लिखे तो लगा दिल का बोझ कुछ कम हुआ ....इमरोज़ जी कहते है की आप अभी भी उनसे मिलने आती हैं....उनसे बातें करती हैं, उनको सुनती हैं .... तब तो जरुर ...इमरोज़ जी ने मेरे ख़त आपको सुनाएँ होंगे ..... इस बात को सोच कर ही मैं आनंदित हो उठती हूँ ......
सोचा था इमरोज़ जी से मिल कर आपकी बातें उनसे सुनूंगी और उनकी आँखों में आपको देखूंगी....बहुत दिल करता है आपके घर आने का ....आपकी तस्वीरों से बातें करने का .....आपके घर की हर तस्वीर को देखने का जो इमरोज़ जी ने आपके लिए बनाई .....पर .....

एक दिन जरुर मिलूँगी आपसे ......

आपसे 
जन्मी मैं 
लिख रही हूँ आपको 

अदना सा जर्रा हूँ 
भूल है जो 
गढ़ रही हूँ आपको 

नहीं मैं ये कभी नहीं हो सकती न मैं ''आप'' बनना चाहती हूँ ..... बस आपकी तरह प्रेम लिखना और प्रेम जीना चाहती हूँ ..... मेरे सपनों के जरिये ही सही पर आपका प्यार और आशीर्वाद मुझे मिलता है और ये मेरे लिए सबसे अनमोल है ......

आपका प्रेम और आपका लेखन यूँही हम सभी का लेखन महकाता रहे .....और आप यूँही हम सभी के दिलों में सदा जवां रहे ....मेरे बहुत सारे प्यार और सम्मान के साथ ....

जन्मदिन मुबारक....मेरी अमृता ....




Tuesday, July 22, 2014

ये बहुत अजीब बात है की अमृता जी अपने सपनों में ईश्वर के रूपों को देखा करती थीं
कभी साईं ...कभी शिव ..कभी राम ...कृष्ण ...अल्लाह ....गुरुनानक साहब .... जैसे उनका कुछ हिस्सा इन विश्वास के प्रतीकों संग बंधा रहा हो ..... उन्होंने अपनी आख़िरी किताब  ''मैं तुम्हें फिर मिलूँगी'' में कुछ हिस्से में अपनी नज्मों को और बाक़ी में अपने सपनों को शामिल किया जिसमें उन्होंने अपने विश्वास को आत्मसात करते हुए शब्दों का रूप दिया ....

अमृता जी बेहद पाक़ रूह थी जिनके ज़ेहन में ईश्वर ने अपना स्थान लिया ....अमृता जी अपने धर्म के आलावा भी सभी धर्मों को पढ़ती, लिखती और अनुसरण करती थी ....अपनी किताब ''अक्षरों के साये'' में उन्होंने हिन्दू ग्रंथो का ज़िक्र किया हिन्दू धर्म के इतिहास को बताया और अपने विश्वास को भी ....
''रात भारी है'' किताब में उन्होंने ईसाई धर्म का ज़िक्र किया ....अगर आप पढ़ते है उसे तो आप जान पाएंगे की ऐसी बहुत सी अनसुनी बातें उन्होंने उसमें लिखी जो ईश्वर के प्रति विश्वास को बनाये रखने के प्रमाण देती  हैं.

अमृता जी ने अपनी लेखनी अपने सपनों का ज़िक्र किया  जिसमें न केवल उन्होंने ईश्वर के स्वरूपों के दर्शन किये वरन अपने सपनो के मतलब भी तराशें ..... उनका हर सपना एक भेद खोलता था उनकी ज़िन्दगी के ....
यह बहुत अद्भुत है ......इस कदर का रिश्ता होना ....बेहद आश्चर्यजनक और चमत्कारी रूह का प्रमाण है और निश्चित ही अमृता जी रूहानी शक्सियत थी ....


Wednesday, June 4, 2014

अमृता जी की चाहा मुझे लेखन में खिंच लायी ..... मैं यूँही लिखा करती थी, अमृता जी को पढ़ा करती थी फिर जब मेरी ज़िन्दगी ने करवट बदली और परिस्थितियों ने खामोशी को जन्म दिया तो मैं .....मैं न रह कर लेखक भी हो गयी .......ये ख़ामोशी मेरी ज़िन्दगी की बदलती परिस्थतियों की देन थी इसलिए ये मेरी संतान हुई....

ख़ामोशी को मैंने सहर्दय स्वीकार किया ....अपने सीने से लगा कर आज भी इसे लोरियाँ सुनाती हूँ .... ये बात और है की ख़ामोशी सिर्फ बढ़ती है .....शोर करती है ..... पर बहलती नहीं , चुप नहीं होती .....

अब तक मैं इसे नज़्म लिख बहलाती रही पर जब मेरे ज़हन में कोई नज्म न हो तो मैं क्या करूं ? कोई उपाय नहीं मिला मुझे .......इसलिए अब इसे मैंने बाँट लिया ....अमृता जी के ख्यालों संग .... जब मुझे हद-तर सता लेती है ख़ामोशी ......तब मैं .....अमृता जी के ख्याल थमा इसके हाथों में .....थोडा सुकून पा लेती हूँ ......

अमृता जी मेरी हर परिस्थति की साथी है ...... मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा है ......अमृता जी यहाँ है मुझे में कहीं ......मेरी अमृता बन कर ........

Saturday, May 17, 2014


२९ मई १९८३
अब जिस सपने से बड़ी हैरान जागी हूं, इमरोज़ की बांह पकड़ कर कितनी ही देर तक उसकी ओर देखती रह गई कि यह सपना उसे कैसे सुनाऊं ! कुछ भी लफ्जों की पकड़ में नहीं आ रहा था...हौले-हौले आधे-अधूरे लफ्जों में सुनाने की कोशिश की...

"किसी दीवार में एक बहुत बड़ा शीशा लगा हुआ है...अचानक मेरा ध्यान शीशे की ओर जाता है और देखती हूँ कि सिर से पैर तक मेरी सूरत किसी मंदिर में पड़ी हुई पार्वती की सूरत जैसी हो गई है...बदन पर सफेद धोती है जिस का पल्ला सिर तक लिपटा है सिर पर लम्बे बालों का एक जूड़ा है...नक्श इसी तरह तराशे हुए...पर मेरी सूरत, आज से कुछ बरस पहले जैसी है...चेहरे पर गंभीरता आज जैसी है, पर नक्शों की जवानी आज से कुछ बरस पहले जैसी...

"पत्थर की एक गढ़ी हुई मूर्ति की तरह अपने आपको देखती हूं...और खुद ही कहती हूं-आज मैंने यह कैसा भेस बनाया हुआ है ? बिल्कुल शिव की गौरी जैसा..." सपने की हैरानी और खुमारी बताई नहीं जाती....

                     

ये अमृता जी का सपना था जो मैंने अब उनको जानने के बाद पढ़ा और जाना .......मगर इस सपने को मैं पहले ही अपने रूप में, अपनी नींदों से जी चुकी हूँ और उस वक़्त में अचरज से भर गयी जब मैंने अमृता जी के इस सपने को पढ़ा।फर्क सिर्फ इतना रहा की अमृता जी अपने इमरोज़ की बाँहों में थी और मैं खाली हाथ भरी आँखों से खुद से सवाल कर रही थी।

ये सब क्या है मैं नहीं जानती .......क्यूँ है ये जानना नहीं चाहती .....बस ये सब मेरा है .....मेरे लिए अमृता जी का आशीर्वाद है .....यकीन है मुझे।
मैं अक्सर ख़ुद को उन एहसासों से जोड़ने की कोशिश करती हूँ जो अमृता जी ने अपने अकेलेपन और तन्हा पलों में बितायें होंगे। किस क़दर सोचते हुए उन्होंने वो दिन जीये, क्या सहते हुए, उस घुटन और बैचैनी को मैं महसूस करने की कोशिश करती हूँ पर मेरे प्रयास व्यर्थ है। वो अद्धभुत शख़्सियत थी उनकी जैसी रूहें कई जन्मों के बाद इन्सानी रूप लेती है। मैं शायद उनके क़दमों की धूल भी न बन सकूँ पर ये जरूर चाहती हूँ की उनके नाम की गूँज मेरे कानों में सदा पड़ती रहे। 

 उन्होंने जो खोया, जिस तरहा से खोया उसका दर्द मैं समझती हूँ। कई बार ऐसा लगता है जैसे उनकी ज़िन्दगी के पन्ने जो ख़ाली रह गये होंगे उस पर ही मेरी ज़िन्दगी को उतार दिया गया है। उनके ज़ख़्म, उनका दर्द , उनका वो एकाकीपन और उसमे उलझी उनकी ज़िन्दगी की डोर जैसे अब मेरे हिस्से में आ गए है और ये सभी मुझे अज़ीज़ है, मेरे लिए अनमोल है।

मैं जानती हूँ अपने प्यार से अलगाव और फिर उसके गम से लगाव जीवन को जीने का बहाना दे देते है। अपने प्यार का न हो पाने की चुभन, उसकी टीस ताउम्र साथ चलती है जो न कभी मरने देती है और न ही जीने देती है। अमृता जी ने ख़ुशी से ऐसे जीवन को जीया और अमरप्रेम की अनोखी मिसाल क़ायम की । उनके शब्दों में उनके जीवन की ख़ूबसूरती, तसल्ली और सन्तोष की छवि साफ़ झलकती है।

मैं अमृता जी जितनी मज़बूत और सहनशील नहीं शायद फिर भी अपने गम को सहर्ष गले से लगाये इसी के साथ जी रही हूँ और जीती रहूँगी। अमृता जी को पढ़ कर हर बार मेरे टूटते कदम खुद-बा-खुद सम्भल जाते है। अमृता जी मेरी आराध्य, मेरी गुरु, मेरी प्रेरणा है और उनका मेरे सपनो में आना, मुझ से मिलना ये इस बात का प्रमाण है की वो मुझे सुनती है, देखती है और मुझे अपना आशीर्वाद दे रही है।
हमारे बीच का ये अनसुना सा रिश्ता अनोखा है, अद्धभुत है जिसको व्यक्त करना मेरे लिए शब्दों में नामुमकिन है। 

 



Tuesday, January 14, 2014

अमृता-इमरोज़ से मिलना- सिलसिला-1 (14 जनवरी 2014)

आज शाम मेरे लिए अनमोल तोहफ़ा लायी जिसका ज़िक्र मुझे पल में ख़ुश करता है और फिर रुलाता भी है। सोशल साईट से जुड़ना आज सच मायने में मुझे आनंदित कर रहा है जिसके लिए मैं इसके जन्मदाता को बारम्बार धन्यवाद दे रही हूँ। रोज़ की तरह मेरा लेखन और लोगो से, दोस्तों से मेल-मिलाप यानी बातों का सिलसिला सोशल साईट पर हो रहा था, इसी बीच ''रश्मि प्रभा जी'' की एक रचना देखीं जिसमें वह इमरोज़ जी के साथ थी। मैंने तभी उत्सुकता और लालायित हो कर उन्हें पूछा- ''आप इमरोज़ जी से मिले हो?''
उन्होंने जवाब में कहा- ''हाँ, मोबाइल पर सन्देश भी भेजतीं हूँ और बातें भी करती हूँ। ''
मैंने दिल की बात कह दी तभी ''मुझे उनसे मिलना है। ''
रश्मि जी -''तो मिलो, कहाँ हो?''
मैं - आगरा
रश्मि जी - ''दिल्ली, ग्रेटर कैलाश में है वें ''
मैं- आपने मेरा एक लेख़ पढ़ा होगा शायद, आप समझ पाओगी की मैं क्यूँ उनसे मिलना चाहती हूँ।
रश्मि जी- ''आज तो उन्होंने मैसेज किया -वो है भूलने वाली ही ज़िन्दगी भी होती है, मोहब्बत भी और रश्मि भी। ''
मैं- मैं अमृता जी से नहीं मिल पायी, जिसका मुझे बेहद अफ़सोस है जो हर दिन मुझे रुलाता है, आप कितनी ख़ुशनसीब है जो आप इमरोज़ जी से मिलते हो।
रश्मि जी- ''इमरोज़ तो प्रेम है प्रियंका, उनसे मिल कर सब पारस हो जाते है। चाहोगी तो नंबर दूँगी उनका ''
और मैं रो पड़ी, उनकी इस बात ने जैसे मुझे मेरे ख़ुदा के दर का नक्शा दिखा दिया था और मैं उस पल खुद को सम्भाल नहीं पा रही थी। मैंने कुछ नहीं कहा तभी रश्मि जी के जवाब में ''इमरोज़ जी का फ़ोन नंबर आया '' मैं अपने हाथों से चेहरे को छुपा लिया और फूट-फूट कर रोने लगी।
मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था इसलिए मैंने रश्मि जी से कहा- आप ऐसे काहें आपको नहीं पता मेरे लिए इसके क्या मायने है।
रश्मि जी बोली - वक़्त नही रुकता प्रियंका, इमरोज़ जी ख़ुदा है, 74 उम्र कम नहीं !
मैंने उन्हें पूछा - वो कैसे है, उनकी आवाज़ कैसी है और अमृता जी के बारे में क्या बोलते है वो?
रश्मि जी- ''अमृता वर्तमान है उनके लिए, अमृता आती है, कहती है...... एक फक़ीरी आवाज़ है वो '' तुम भी, जो रो रही हो आँसू मूल्यवान होते है।
और उन्होंने मुझे अभिनव इमरोज़ में पढ़ा इमरोज़ जी की नज्म पढ़ने को दी। मैं पढ़ते हुए सोच रही थी कि रश्मि जी ने सही कहा आँसू मूल्यवान होते है, तो मैं भी तो वही कर रही थी अपने ईश्वर के नाम पर आँसू बहा रही थी इसलिए तो ये है इनका मूल्य इसलिय ही तो है।
रश्मि जी ने जाते हुए ये भी कह दिया कि '' कभी आओ दिल्ली तो मिलना '' और फिर दुआ दी ''खूब ख़ुश रहो और यूँही लिखती रहो '' और चली गयी।
उनके जाने के बाद ख़ुशी से और कभी अपनी मजबूरियों को सोच रोने लगती, बहुत खुश थी मैं आँखों ने तो जैसे जश्न में अश्क़ों की बहार लूटा रखी थी। मन बौरा गया था दिल में आता था ज़ोर ज़ोर से चिल्लाऊँ, सब को बताऊँ कि ''देखो मुझे आज क्या मिला है, मेरे ख़ुदा के प्यार से मिलने का मौका, उनसे बात करने का मौका मिला है मुझे मेरे ख़ुदा के दर जाने का मौका मिला है। '' पर नहीं कर सकती मैं ये कोई नहीं समझेगा, कोई नहीं समझेगा मेरे सपने को जो शायद यूँ पूरा हो सकता है और इसलिए मैं रोने लगी।
क्या करूँ कुछ समझ नही आता, शायद रोना आसां होता है इसलिए...........
बत्तियाँ बुझा कर लेट गयी कुछ देर में ही सही पर शायद नींद जायेगी , पर मैं जानती हूँ आज नींद नहीं आएगी।
मन उछाले मारने लगा जैसे अभी ही मुझे तैयार हो कर जाना है इमरोज़ जी से मिलने, अमृता जी के घर उनके घर........आहा!!!
सोचा, वो सूट पहन के जाऊँगी, यूँ बाल बनाऊँगी और खूबसूरत फूलों का गुलदस्ता ले कर जाऊँगी, अरे, मेरा कैमरा तो रह ही गया और अपनी कुछ कविताएं भी लेती जाऊँगी, सुनाऊँगी इमरोज़ जी को.………
जाने कैसे मिलूँगी, कहीं रो जाऊं उन्ही के सामने, रो ही जाऊँगी पर खुद को रोक कर रखुंगी......रख पायी तो।
घर की ज़मीं पर पैर रखते ही सज़दा कर लूँगी , मेरे ख़ुदा का दर जो है और जैसे उमा जी ने ''अमृता-इमरोज़'' में लिखा था की हर तरफ इमरोज़ जी की बनायीं हुई अमृता जी की तस्वीरें है उन्हें देखूँगी फ़ोटो लूँगी, अमृता जी की हर तस्वीर का फ़ोटो लेना है मुझे....
बहुत संकोच है मन में और थोड़ा डर भी बस इमरोज़ जी मुझे ग़लत समझे ,अमृता जी के लिए मेरे भाव काश वो समझ पायें। घर में कमरों की तरफ बढ़ती जा रही थी और नज़रें सिर्फ दीवारों पर, तस्वीरों पर और इमरोज़ जी को ढूँढ रही थी।
मुझे उस पवित्र जगह का एहसास होने लगा था, गिरजा घर जैसी शान्ति और गुरुदुआरे जैसी महक अब यक़ीन हो गया था ये मेरे ईश्वर का घर है।
तभी सामने से इमरोज़ जी आये हल्की मुस्कान और जैसे बाँहें ख़ुली हो स्वागत में........ आहा.....
आप सर , मैं.…… ओह्ह  ....... समझ नहीं आया क्या कहूँ फिर गुलदस्ता आगे किया और उसमे से एक फूल निकाल कर इमरोज़ जी को देते हुए कहा - ये आपके लिए.…… उन्होंने मुस्कुरा कर फूल ले लिया फिर पूछा और ये बाक़ी………..
मैं कुछ बोलीं बस कमरे में नज़र दौड़ायी और कोने में रखी अमृता जी की तस्वीर के पास गयी, उनको देखा……… सर झुका सज़दा किया और गुलदस्ता उन्हें दे कर कहा- अमृता जी देखिये मैं आपसे मिलने आयी हूँ, वक़्त ने जो छीन लिया मुझ से उसे वापस माँग लायी हूँ, देखिये मैं आपसे मिलने आयी हूँ ये फूल आपके लिए और मैं फूल उन्हें दे दिये, कुछ देर उन्हें दिखती रही और फिर सब्र का बांध टूट गया मैं रो पड़ी।
जैसे अपने ख़ुदा के सामने बेपर्दा हो गयी में और दिल खोल कर रख दिया मैंने उस समय अमृता जी के आगे, मैं क्यूँ रो रही थी नहीं जानती और किसी को मैं ये बता भी नही सकती, क्या कहूँगी , कोई क्या समझेगा , कोई नहीं समझेगा जानती हूँ सब पागल ही कहेंगे। 
पर मैं बताऊँ भी क्यूँ ये जो है मेरा है और अमृता जी का वो शायद समझ रही है और शायद इमरोज़ जी भी समझेंगे………काश ये सब सच हो जाये मैं एक बार ही सही पर अपने ईश्वर के घर अपने तीर्थ हो आऊँ...…… क़ाश!!!.........