मेरी अमृता....

मेरी अमृता....

Friday, November 22, 2013

''अमृता के साये''…

मुझे इस बात का बहुत अफ़सोस है की मैं अमृता जी से मिल नहीं पायी। उनका ऐसे जल्दी चले जाना मेरे लिए क्या है मैं इसे शब्दों में नहीं बयां कर सकती बस कह सकती हूँ कि ऐसा दुःख है जो कभी दूर नहीं हो पायेगा। मैं चाहती थी अमृता जी से मिलना उनसे बात करना कुछ सीखना और उन्हें छूना । उनके हाथों को छूना चाहती थी चूमना चाहती थी । पर ये समय का ही दोष है यक़ीनन कि मेरी उम्र और उनकी उम्र समय को खल गयी।

जब भी उनको पढ़ती हूँ, मेरी आँखे नम हो ही जाती हैं हर बार । हर बार जब भी उनको पढ़ा यूँ लगा जैसे मैं उनके साथ हूँ वो जहाँ जाती है मुझे साथ ले जाती हैं हर जगह ।

उनकी आत्मकथा ''अक्षरों के साये'' पढ़ते हुए जब अमृता जी साहिर साब से सात साल बाद मिलने आती है और साहिर साब उनको अपने घर ले जाते है उस वक़्त उनके बीच कोई गुफ्तगू नहीं होती । कोई शब्द नहीं होता सिर्फ उनके मन की आवाज़े होती हैं जो समां बांधे रखती है । साहिर साब का घर, उनकी माँ, उनके दोस्त , वो रात का सन्नाटा, सुबह दोनों की गर्माती चाय और दोनों कि बोलती ख़ामोशी । ये सब मैंने देखे जैसे अमृता जी के साथ मैं वही हूँ घर के किसी कोने में बैठ ये सब देख रही हूँ । उनकी ख़ामोशी उनके आँसू सब देखे मैंने। बस कुछ कह नहीं पाती उनके साथ चुप मैं भी रो लेती हूँ । उफ्फ वो वक़्त कैसा रहा होगा उन पर, समझ सकती हूँ। सामने अपना प्यार हो और जबां पर शब्द न आते हों, क़सक रह जाती है दिल में.....

ये होना स्वाभाविक तो नहीं लगता । क्या है ये, क्यूँ है ये । पर मुझे इत्मीनान भी है की अमृता जी यूँ ही सही मेरे करीब तो हैं पर अक्सर मन विचलित हो उठता है । अनगिनत सवाल है जिनका जवाब कहाँ है मैं नहीं जानती ...

अमृता जी को जब भी देखती हूँ, बस देखती रहती हूँ कुछ उनकी आँखों से पढ़ने कि कोशिश करती हूँ और ये भी मन में चलता रहता कि जैसे मैं उनको पढ़ने की कवायत में लगी हूँ । शायद वो भी उन तस्वीरों के माध्यम से मुझे पढ़ने कि कोशिश करती हों।

उस रात भी कुछ यूँ हुआ की मन अभी तक उससे उभर नहीं पा रहा । ख़ुशी कहूँ या दुःख , पता नहीं...

तीन दिन पहले की बात है सुबह के ५:३० हुए थे । मैं जागी और सर्दी महसूस कर फिर लेट गयी । जागने का वक़्त तो था ही पर मन नहीं हुआ और कुछ देर बाद नींद भी लग गयी । मैंने ख़ुद को किसी गाँव में देखा जहाँ मेरे साथ मेरा छोटा भाई और मेरी दीदी भी है । वहाँ भगदड़ मची है हम सब किसी से छिप कर भाग रहे हैं और भागते हुए जानवरों के बाड़े में आ गए । हर तरफ़ खून फैला हुआ है , चीखें सुनायी दे रही थीं यहाँ तक । कुछ हुआ था वहाँ भयंकर, तभी एक औरत आयी उसने मारने के लिए तलवार उठायी । मैं काँप गयी हाथ जोड़ बोली हमें मत मारो । हमें नहीं पता हम यहाँ कैसे आ गए, हम यहाँ के है भी नहीं, जाने दो हमें । वो चिलाई 'नहीं नहीं' । मेरे भाई कि और इशारा कर बोली - 'इसे दे जा फिर जा'।

मैं चिल्लायी नहीं मैं अपने भाई को नहीं दूँगी । बहुत मुश्किल से वो मुझे वापस मिला है मैं उसे नहीं दूँगी कभी नहीं दूँगी तभी उसको धक्का दे अपनी दीदी, भाई को ले भाग निकली । वो हमारे पीछे तलवार लिए दौड़ती आ रही थी । एक गली पार करते हुए खेतों तक आ गए । वो औरत पीछे रह गयी और अब नज़र भी नहीं आ रही थी । छिपते छिपाते खेतों के पास टूटे घरों में छुपने का ठिकाना देख ही रहे थे कि वहाँ एक और औरत मिली । कमज़ोर और दयनीय दशा में । पहले से परेशन थे इसलिए उसकी किसी बात को नही सुना वो बोलती रही हल्की आवाज़ में । पर मैंने नहीं सुना, तभी कोई भागता हुआ आया और उस औरत को धक्का दे कुछ लेता हुआ उनसे खेतों के किनारों से भाग गया वो औरत चिल्लायी पकड़ो उसे कोई तो पकड़ो । उनकी पुकार सुन मैं भागी उसके पीछे । शायद कुछ अनमोल ले गया उनका इसलिए वो इतना चिल्लाती है। कुछ देर तक पीछा किया पर वो भाग गया था ।

खेतों के किनारों पर बबूल के झाड़ थे जिसकी वजह से मेरे हाथों पर खरोंचे आ गयी । वो औरत मुझे देख बोली-आओ मलहम लगा दूँ ….आओ ।

मैं डरी थी इसलिय बोली- नहीं रहने दो 'मैं ठीक हूँ , पर वो नहीं मानी'। डरते हुए उनके साथ उनके घर में गयी।

अस्तव्यस्त और कम रौशनी का मकान उनका । मुझे बैठा कर अंदर चली गयी । कुछ देर बाद मैं उठ कर अंदर के छोटे से कमरे में गयी जहाँ सिर्फ एक इंसान ही एक बार में खड़ा या बैठ सकता था और उस वक़्त मुझे आश्चर्य हुआ जब मैंने देखा कि वहाँ कंप्यूटर है वही पुराने मॉडल का.... मैं चौंक गयी यहाँ कंप्यूटर…..कैसे?

मैने उसका मॉनिटर स्क्रीन अपनी ओर घुमाया और मैं रो पड़ी । ये तो अमृता जी की नज़मे है और एक अधूरी थी जो शायद टाइप की जा रही थी। इसका मतलब ये औरत अमृता जी है। मैं अपनी सुध खो बैठी, ये अमृता जी है।

तभी वो बाहर वाले कमरे में आ मुझे पुकारती है 'कहाँ गयी तुम...यहाँ आओ' । मैं बावरी सी भाग कर जाती हूँ। उनके सामने हाथ जोड़ रोती जाती हूँ। आप अमृता जी हैं, आप अमृता जी हैं। मुझे बताया क्यूँ नहीं। क्यूँ चली गयीं आप इतनी जल्दी। मुझे मिलना था आपसे। और मैं बस रोये चली जा रही थी। उनके हाथों को अपने हाथों में ले अपने घुटनो पर गिर कर मैं रोते हुए उनको चूम रही थी। आप क्यूँ चली गयीं, मुझे मिलना था आपसे। उन्होंने मुझे उठाने कि कोशिश की पर मैं नहीं उठी। उनके हाथ पकड़ अपना सर उनके सामने झुकाये रोती रही और वही एक सवाल दोहराती रही।

कुछ देर बाद वो बैठ गयी मेरे चेहरे को अपने हाथों में ले कहती है ''बस करो….मत रो अब….मैं सामने हूँ फिर भी….तब नहीं मिली तो क्या हुआ….आज तो मिल ली ना मुझसे…..इधर देखो’’

मेरे आँसू पोछते हुए बोली - "तुम्हे शिकायत थी न मैं तुमसे नहीं मिली इसलिए आज आयी हूँ तुमसे मिलने" और मेरे सर पर हाथ रख सहलाने लगी। मैं उनको देखती रही और रोती रही, बस रोती रही।

तभी ८ बजे का घंटा बजा और मेरी नींद खुल गयी। पर मेरी आँखों से आँसू बह रहे थे और अमृता जी का चेहरा मेरी आँखों में था। उस दिन मैंने उस सपने को न जाने कितनी बारी आँखे बंद कर जीवंत किया और हर बार अपनी आँखों को भिगोया। ये क्या था मैं नहीं जानती पर जो भी था मुझे उसका एहसास बहुत गहरा था और बहुत ज्यादा था। मैंने अमृता जी के हाथों को चूमा, अपने हाथों में ले महसूस किया वो सब मुझ में बस गया है।

उनका चेहरा मेरी आँखों में रहता है। उनके कहे गए शब्द मेरे कानों में अभी भी सुनायी देते है मैं अभी भी भरी आँखों से उनके कोमल हाथों की छुअन को महसूस कर लेती हूँ। ये क्या है नहीं जानती पर जो भी है अद्धभुत है, अविश्वसनीय है।

इस बात का यकीन है .....
ये जो भी है वो बस मेरा है और अमृता जी का……..

Saturday, August 31, 2013

अमृता, तुम नहीं हो फिर भी....

एहसासों की लेखनी में श्रेष्ठ कवयित्री अमृता जी के जन्म दिन के उपलक्ष्य में मेरी एक अदना सी कोशिश, उनको बयां कर पाना आसां नहीं है,बस कोशिश की है....

नज्मों को सांसें
लम्हों को आहें
भरते देखा
अमृता के शब्दों में
दिन को सोते देखा
सूरज की गलियों में
बाज़ार
चाँद पर मेला लगते देखा
रिश्तों में हर मौसम का
आना - जाना देखा
अपने देश की आन
परदेश की शान को
देसी लहजे में पिरोया देखा
मोहब्बत की इबारत को
खुदा की बंदगी सा देखा
अक्सर मैंने अपने आप को
अमृता की बातों में देखा
शब्द लफ्ज़ ये अल्फाज़
अमर है तुमसे
हाँ, मैंने तुम्हें जब भी पढ़ा
हर पन्ने पर तुम्हारा अक्स है देखा
अमृता, तुम नहीं हो फिर भी
आज हर लेखक को
बड़ी शिद्दत से
तुम्हें याद करते देखा......